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नरेन्द्र सहगल
हिन्दुओं को बांटने का षड्यंत्र है यह समाजघातक शब्दावली
मैं अपनी बात को एक प्रश्न के साथ शुरु करता हूं। जब अनेक सड़कों, शहरों, योजनाओं, संस्थाओं और अदारों के नाम बदले जा रहे हैं तो फिर समाज को तोड़ने वाली सवर्ण और दलित जैसी खतरनाक शब्दावली को क्यों नहीं बदला जा रहा?
इन दिनों दलित बनाम सवर्ण के प्रश्न पर हो रहे राजनीतिक घमासान को देखकर उन अंग्रेज शासकों की आत्माएं फूली नहीं समा रही होंगी,जिन्होंने अपने सम्राज्यवादी शिकंजे को कसने के लिए हिन्दू समाज में जाति आधारित राजनीति का जहर घोला था। दुर्भाग्य तो यह है कि राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने के सात-आठ दशकों पश्चात भी इस जहर का असर बरकरार है। जिस जहर को अब तक समाप्त हो जाना चाहिए था, वह निरंतर बढ़ता जा रहा है। सामाजिक समरसता पर निरंतर बढ़ते जा रहे इस खतरे की आग पर वोट के लोभी राजनीतिक नेता अपने स्वार्थों का तेल छिड़कने से बाज नहीं आ रहे।
सच्चाई तो यह है कि हमारे समाज जीवन में जबरदस्ती घुसपैठ करते जा रहे यह दोनों शब्द दलित और सवर्ण ही वास्तव में वर्तमान फसाद की जड़ हैं। हिन्दू धर्म सहित प्रायः सभी मजहबों में मनुष्य को ईश्वर की संतान माना गया है, फिर यह सवर्ण और दलित जैसा जातिगत विभाजन कहां से आ टपका? जहां सवर्ण शब्द अहंकार एवं अभिमान की पराकाष्ठा है, वहीं दलित शब्द घोर अपमान एवं हीनता का सम्बोधन है। सवर्ण शब्द जहां मिथ्या वरिष्ठता को दर्शाता है, वहीं दलित शब्द हीन भावना को जन्म देता है। वास्तव में यह दोनों शब्द हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध इत्यादि धर्मों/सम्प्रदायों की सैद्धांतिक मान्यता की परिधि में नहीं आते। यह शब्द भारतवर्ष की सनातन उज्जवल संस्कृति का हिस्सा भी नहीं हैं।
अब प्रश्न पैदा होता है कि हमारे समाज जीवन में इन शब्दों का जहर किसने घोला? अंग्रेजों ने पहली बार 1921 में दलित शब्द/नाम का सरकारी तौर पर इस्तेमान किया था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने यह शब्द प्रयोग अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की निम्न स्तरीय एवं षड्यंत्रकारी राजनीति के अंतर्गत अपनी सुविधा के लिए किया था। परन्तु आज स्वाधीन भारत में इस शब्द प्रयोग के खतरनाक नतीजे आने के बावजूद भी इन शब्दों को राजनीति का मोहरा बना कर अपनी नेतागिरी को चमकाने में कौन सा राष्ट्रहित है?
उल्लेखनीय है कि एक लम्बे समय से हमारे विशाल हिन्दू समाज का एक पिछड़ा वर्ग अशिक्षा, गरीबी, शोषण और उत्पीड़न का शिकार है। इसी वजह से हमारे यह गरीब एवं पिछड़े भाई हीन भावना का शिकार होते चले गए। तो भी इन लोगों को अपने आपको दलित कहलवाना पसंद नहीं आया। डॉक्टर अंबेडकर ने 4 नवम्बर 1931 को गोलमेज सम्मेलन के लिए अपने पूरक प्रतिवेदन में स्पष्ट शब्दों में लिखा था -‘‘पिछड़े वर्ग के लोगों को इस दलित नाम पर सख्त आपत्ति है इसलिए नए संविधान में हमें दलित वर्ग के बजाय ‘प्रोटेस्टेंट हिन्दू’ अथवा‘पिछड़ा हिन्दू’ जैसा कोई नाम दिया जाए’’। पुनः 1 मई 1932 को लोथियन कमेटी को एक प्रतिवेदन में उन्होंने लिखा -‘‘आपकी कमेटी के सामने अधिकतर दलित नेताओं ने इस नाम पर आपत्ति की है, यह नाम भ्रम पैदा करता है कि दलित वर्ग कहलाने वाला सारा समाज ही पिछड़ा और बेसहारा है, जबकि सच तो यह है कि प्रत्येक प्रांत में हमारे बीच खाते-पीते और सुशिक्षित लोग भी हैं — इन सब कारणों से ‘दलित वर्ग’ नाम बिलकुल अनुपयुक्त और अवांछित है’’।
डॉ. अंबेडकर अस्पर्शयता की समस्या को हिन्दू समाज की एक कुरीति मानते थे जिसे दूर करने के लिए वे जीवनभर संघर्षरत रहे। धूर्त अंग्रेज शासकों ने डॉक्टर अंबेडकर की बात नहीं सुनी और उलटा 1936 में‘अनुसूचित जातियां’ जैसा विचित्र नाम देकर एक विभाजन रेखा और खींच दी — यह कैसी विडंम्बना है कि जो समाज पहले दलित शब्द से छुटकारा पाकर अपने हिन्दू मूल से जुड़ा रहना चाहता था, उसे ही अब दलित नाम से जबरदस्ती चिपका रहने और उस पर गर्व करने को कहा जा रहा है। और वह भी डॉक्टर अंबेडकर के नाम पर।
दरअसल हमारे पिछड़े भाइयों को आरक्षण की आवश्यकता कम थी और समाज में सम्मान की जरूरत ज्यादा थी। अगर हमारे राजनीतिक नेताओं ने आरक्षण का शोर मचाने के स्थान पर इन्हें समाज में सम्मान दिलाने के लिए शक्ति लगाई होती तो आज सामाजिक समरसता पर खतरा न मंडराया होता। ध्यान से देखें तो हमारी वर्तमान राजनीतिक एवं कानून व्यवस्था आरक्षण तो देती है मगर सम्मान की गारंटी नहीं देती।
सामाजिक समरसता आरक्षण से नहीं सम्मान से स्थापित होगी। आरक्षण के नाम पर राजनीति करने में जितना परिश्रम किया जाता है अगर उससे एक चौथाई परिश्रम इस पिछड़े वर्ग को मंदिरों में प्रवेश दिलाने, इनके साथ उठने बैठने, इनके साथ तीज त्यौहार मनाने और इनके साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनाने में किया होता तो सामाजिक समरसता मात्र एक स्वप्न बनकर न रह जाती।
वास्तव में वर्तमान भारत के प्रायः सभी राजनीतिक दल जातिवाद को दूर करने के बजाय उसे और भी ज्यादा सुदृढ़ करने के जुगाड़ में लगे हुए हैं। इन्हें हिन्दू कहने के बजाय दलित कहने के लिए उकसाया जा रहा है। समाज को बांटने का जो काम पहले अंग्रेज करते थे वही जघन्य काम आज हम कर रहे हैं। हमारे नेताओं की सत्तालोलुप राजनीति के कारण यह दलित शब्द एक कमजोर आर्थिक स्थिति का प्रतीक न रहकर केवल मातृ एक फुटबाल जैसा वोट बैंक बन गया है, जिसे जो जिधर चाहे हांक कर ले जाए। अतः इन पिछड़े भाइयों को आरक्षण के साथ गले लगाने की भी आवश्यकता है।
(नरेन्द्र सहगल : पूर्व संघ प्रचारक, वरिष्ठ पत्रकार एवं धर्मान्तरित कश्मीर, राम अर्थात राष्ट्र, व्यथित जम्मू-कश्मीर और भारत वर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता इत्यादि दो दर्जन पुस्तकों के लेखक)।