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इस्लामिक सिद्धान्तों को भी दफन कर दिया बाबर ने
मुगल सेनापति मीरबांकी द्वारा मंदिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद का सफाया करने के लिए हिन्दुओं ने हमलों का तांता लगा दिया। बाबर रोज-रोज के इन युद्धों में हिन्दुओं के द्वारा अपमानित हो रहा था। वह कोई समझौता करके अपनी इज्जत बचाने की राह तलाशने लगा। मीरबांकी ने तो अत्यंत दुखी होकर बाबर को एक पत्र भी लिख डाला -‘मंदिर को भूमिसात करने के पश्चात उसके ही मलबे से जब से मस्जिद का निर्माण प्रारम्भ हुआ है, दीवारें अपने आप गिर जाती हैं। दिनभर में जितनी दीवार बनकर तैयार होती है शाम को न जाने कैसे दीवार गिर जाती है? महीनों से यह खेल चल रहा है।’
मीरबांकी के अपने ही शब्दों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मंदिर के स्थान पर बनाई जा रही मस्जिद को कोई ताकत बनने नहीं दे रही थी। यह ताकत कोई जादुई ताकत नहीं थी अपितु हिन्दू राजाओं की सेनाओं, साधू-सन्यासियों और हिन्दू जनता के संगठित और शक्तिशाली प्रतिरोध के फलस्वरूप मीरबांकी इस काम को अपने जीते जी सिरे नहीं चढ़ा सका।
बाबर ने मीरबांकी को जो उत्तर दिया उससे उसकी विवशता प्रकट होती है, उसने स्पष्ट कहा ‘काम बंद करके वापस चले जाओ’ लेकिन मुस्लिम फकीर जलालशाह नहीं माना। उसने बाबर को स्वयं आकर सारा माजरा जानने की प्रार्थना की। बाबर को मजबूरन आना ही पड़ा। अंग्रेज इतिहासकार लोजन ने तो स्पष्ट लिखा है ‘अंततः बाबर पुनः आया, वह सन् 1528 का समय था। सम्राट बाबर सिरवा तथा घाघरा के संगम पर, जो अयोध्या से 3 कोस की दूरी पर है, 1528 ई. में डेरा डाले हुए था। वहां वह सात-आठ दिनों तक पड़ा रहा। उसने अपनी समस्या अयोध्या के साधुओं के समक्ष रखी कि क्या करें? विवश होकर बाबर को हिन्दुओं से समझौता करना पड़ा। समझौते में बाबर ने हिन्दुओं की सारी बातें स्वीकार कर लीं। इन बातों में 5 खास थीं, मस्जिद का नाम सीता रसोई रखा जाए, परिक्रमा रहने दी जाए, सदर गुम्बद के दरवाजें में लकड़ी लगवा दी जाए इत्यादि।
उपरोक्त समझौते में से हिन्दुओं ने क्या खोया? क्या पाया? अगर इस बात की गहराई तक जाएं तो स्पष्ट हो जाता है कि हारे थके बाबर को यदि दो प्रहार और पड़ जाते तो यह तथाकथित मस्जिद ही न बन पाती। बाबर, उसका सेनापति मीरबांकी और उसकी मुगल सेना हिन्दू सैनिकों की मार से दम तोड़ चुकी थी। वह स्वयं समझौता करने अयोध्या के संतों की शरण में आया था। इस मंदिर के लिए लाखों की संख्या में हिन्दुओं का रक्त बह चुका था, फिर क्यों नहीं उसे और उसके नापाक इरादों को समाप्त कर दिया गया? केवल मात्र एक ही शर्त उसके सामने रखी जानी चाहिए थी अथात ‘जन्मभूमि पर केवल मंदिर ही बनेगा’। बाबर ने हिन्दुओं की उदारता का लाभ उठाया और समझौता करके अपनी जान बचा ली।
बाबर ने मंदिर के स्वरूप को बिगाड़कर जो तथाकथित ढांचा खड़ा कर दिया था उसको हिन्दुओं ने कभी मस्जिद नहीं माना। इसमें किए गए पांचों प्रमुख समझौते तो मस्जिद के अस्तित्व से ही इंकार करते हैं। बाबर द्वारा हिन्दू संतों की सभी शर्तें मान लेने के पश्चात मस्जिद तो केवल खानापूर्ति तक सीमित रह गई। शरीयत के अनुसार मस्जिद में अजान देने के लिए मीनारों का होना जरूरी होता है। किसी भी मस्जिद में मंदिरनुमा गुम्बद नहीं होते। हिन्दू संतों ने इस नकली मस्जिद में मीनार नहीं बनने दिए। इस्लामिक सिद्धान्तों के अनुसार मूर्ति कुफ्र मानी जाती है। इस मस्जिद के गुम्बदों पर तो हिन्दू देवताओं की अनेक मूर्तियां थीं। चारों और बनी हुई पक्की परिक्रमा भी हिन्दू मंदिर में ही होती है। राम मंदिर के द्वार पर चंदन की लकड़ी भी लगाई गई। मुख्य द्वार पर गोलचक्र यह तो हिन्दू स्थापत्य कला के ज्वलंत प्रतीक हैं।
अतः यह बात तो स्पष्ट है कि बाबर ने भी इसे मस्जिद नहीं माना। इस्लाम के सारे उसूलों को ताक पर रखकर उसने हिन्दू संतों के सम्मुख समपर्ण कर दिया और अपनी जान बचाने हेतु उसने इस्लाम से भी गद्दारी की। अगर वह सच्चा मुसलमान होता तो शरीयत के उसूलों पर अडिग रहकर मस्जिद का निर्माण करता। हिन्दुओं ने उसे ऐसा करने ही नहीं दिया।
अतः मुस्लिम सिद्धान्तों को ठुकराकर बनाया गया तथाकथित बाबरी ढांचा इस्लाम का पूजास्थल हो ही नहीं सकता। इस तरह इस्लाम को ही अमान्य करके बनाए गए किसी ढांचे को जो मस्जिद कहकर पुकारते हैं वे भी सच्चे मुसलमान नहीं हो सकते। हिन्दू समाज ने तो इसे आज तक मस्जिद नहीं माना। यही कारण है कि बाबर के साथ हिन्दू संतों का समझौता होने के बावजूद मंदिर को पूर्णतया मुक्त करवाने के लिए संघर्ष चलता रहा। यह संघर्ष आज भी चल रहा है। मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचने के बाद यह लड़ाई अब कानून के अंतर्गत लड़ी जा रही है। परन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के साथ जुड़े इस राष्ट्रीय मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में नहीं लिया। इससे समस्त भारतवासियों की भावनाएं आहत हुई हैं। …………….शेष कल।