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विदेशी/विधर्मी परतंत्रता के कारणों पर गहरा मंथन
नरेन्द्र सहगल
सन् 1922 में डॉक्टर हेडगेवार को मध्य प्रांत की कांग्रेस इकाई ने प्रांतीय सह मंत्री का पदभार सौंप दिया। डॉक्टर जी ने कांग्रेस के भीतर ही एक संगठित स्वयंसेवक दल बनाने का प्रयास किया था, परन्तु वह ‘फर्माबरदार’ वॉलिंटियर दल खड़ा करने के पक्ष में कतई नहीं थे। उनके स्वयंसेवक की कल्पना केवल मात्र दरियां बिछाने और कुर्सियां उठाने तक सीमित नहीं थीं। वे चाहते थे कि ‘देशभक्ति से ओतप्रोत, शील से विभूषित और निस्सीम सेवाभाव से स्वयंस्फूर्त अनुशाषित जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा लेकर चलने वाले कर्तव्यशील तरुण लाखों की संख्या में खड़े किए जाएं।
डॉक्टर जी के मानस में इस तरह के विचार दिन रात छाये रहते थे। वे तत्कालीन सब प्रकार की समस्याओं का निदान खोजते और करते रहते थे। 1923 में वर्धा में आयोजित स्वयंसेवक परिषद में भी उन्होंने इसी विषय पर बल देते हुए कहा था कि प्रत्येक परिस्थिति से जूझकर प्राणोत्सर्ग करने वाले स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। वर्तमान संदर्भ में एक संगठन के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन के लिए यह अत्यंत जरूरी है। डॉक्टर जी का रुख चुनावों की राजनीति से अलग तरह की एक ऐसी संस्था बनाने का था जिसमें नई पीढ़ी को राष्ट्रभक्ति और धर्मरक्षा के संस्कारों में गढ़ा जा सके।
देश की स्वतंत्रता के लिए प्रत्येक आंदोलन एवं प्रयास का गहराई से अध्ययन करने के लिए डॉक्टर हेडगेवार कोई भी अवसर नहीं छोड़ते थे। कांग्रेस के गर्म धड़े के नेता डॉक्टर मुंजे ने एक ‘रायफल एसोसिएशन’ बनाई जो युवकों को निकटवर्ती जंगलों में ले जाकर निशानेबाजी तथा सामने खड़े शत्रु का प्रतिकार करने का प्रशिक्षण देती थी। डॉक्टर हेडगेवार ने भी डॉ. मुंजे के साथ कई दिनों तक जंगलों में रहकर यह प्रशिक्षण प्राप्त किया। वैसे तो उन्होंने कलकत्ता में अनुशीलन समिति में अपनी सक्रियता के समय निशानेबाजी तथा बम विस्फोट करने की सारी विधियों की अच्छी जानकारी प्राप्त कर ली थी।
एक समय था जब कांग्रेस के सभी नेता पूर्ण ध्येय को समक्ष रखकर स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा तक तय करने से घबराते थे। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भारतीय या राष्ट्रीय जैसा एक भी संस्कार नहीं था। ऐसे अंग्रेजपरस्त माहौल में डॉक्टर जी द्वारा गठित संस्था ‘नागपुर नेशनल यूनियन’ ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का उदघोष करके अंग्रेजों को खुली चुनौती दे दी थी। अपने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए डॉक्टर हेडगेवार और उनके सभी साथी स्वतंत्रता सेनानियों ने एक‘स्वातंत्र्य प्रकाशन मंडल’ की स्थापना की। एक दैनिक समाचार पत्र ‘स्वातंत्र्य’ चलाने का निश्चय किया गया। अनेक प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में और विदेशी सरकार के दबावों के बीच देश के पूर्ण स्वातंत्र्य के अधिकार के लिए समाज की आवाज को बुलंद करते हुए समाचार पत्र निकालना कोई आसान काम नहीं था। नागपुर के चिटणीस पार्क के पास देनीगिरी महाराज के बाड़े में ‘स्वातंत्र्य’-दैनिक का कार्यालय खोला गया। 1924 के प्रारम्भ में विश्वनाथ राव केलकर के सम्पादकत्व में पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। डॉक्टर हेडगेवार स्वयं प्रकाशक मंडल के प्रवर्तकों में से थे। उन्हें एक प्रकार से समाचार पत्र का संचालक कहना ही ठीक होगा। यह काम करते हुए उनकी सशक्त एवं प्रभावशाली लेखनी की भी जानकारी देशवासियों को मिल गई। जब कभी लेखों की कमी आती वह स्वयं रातभर जागते हुए लेख लिखकर इस संकट को भी दूर कर देते थे। इस पत्र में अनेक काम अकेले ही करते हुए उन्होंने वेतन के नाम पर एक पैसा भी नहीं लिया। पैसे के अभाव के कारण यह पत्र एक वर्ष से ज्यादा नहीं चल पाया, परन्तु इस एक वर्ष के बहुत छोटे से कालखंड में भी लोकसंग्रह के विशेषज्ञ डॉक्टर जी ने कई लेखकों, साहित्यकारों एवं पत्रकारों से दोस्ती बनाकर उन्हें अपने भविष्य की योजना में भागीदार बनने के लिए तैयार कर लिया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हिन्दुत्व विरोधी राजनीति तथा एक विशेष वर्ग के तुष्टीकरण के फलस्वरूप प्रथकतावाद गहरा चला गया तथा इसी समय कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं ने पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध तथा पंजाब आदि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को मिलाकर एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की मांग उठा दी। इन बदलती हुई परिस्थितियों में अधिकांश राष्ट्रवादी हिन्दू नेताओं को यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया कि भारत और भारतीयता को बचाना है तो एक शक्तिशाली संगठित हिन्दू समाज का निर्माण करना ही एकमात्र समाधान हो सकता है। कांग्रेस के ज्यादातर हिन्दू नेताओं ने डॉक्टर हेडगेवार के विचारों से, दबी जुबान से ही सही, सहमति जता दी। डॉक्टर हेडगेवार ने भारत में‘हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है’ इस विषय पर सभी राष्ट्रवादी हिन्दू नेताओं की सहमति बनाते हुए विस्तृत चर्चा हेतु अनेक प्रश्न सबके सामने रखे। यह प्रश्न तथा विषय ऐसे थे जिन पर अभी तक किसी नेता ने सोचा तक नहीं था।
देश स्वतंत्र होना चाहिए, यह तो सर्वसम्मत/समयोचित सत्य है, परन्तु यह परतंत्रता आई क्यों? विश्वगुरु भारत का इतना पतन कैसे हो गया? मुट्टीभर विदेशी आक्रांता हमारे विशाल देश में लूट-खसोट, कत्लेआम, जबरन मतांतरण की क्रूर चक्की चलाने में कैसे सफल हो सके? तुर्क, पठान, अफगान, मुगल और अंग्रेजों जैसे लुटेरे हमलावरों और व्यापारियों के समक्ष हमारे देश के वीरव्रती योद्धा और सर्वगुणसम्पन्न राजा महाराजा बेबस क्यों हो गए? जब हमारी आंखों के सामने ही हमारे ज्ञान विज्ञान के भंडार ग्रंथालयों, समग्र मानवता के प्रेरणा स्रात मठ-मंदिरों, विश्वविद्यालयों/आश्रमों तथा अन्य धार्मिक संस्थानों को धू धू करके जलाया गया तब हम उसको सामूहिक प्रतिकार क्यों नहीं कर सके? यह सत्य है कि 1200 वर्षों में अनेक हिन्दू वीरों एवं महापुरुषों ने अपने बलिदान देकर परतंत्रता के विरुद्ध अपनी जंग को जारी रखा। परन्तु यह प्रतिकार राष्ट्रीय स्तर पर संगठित रूप से एकसाथ नहीं हो सका। डॉक्टर हेडगेवार ने यह प्रयास भी अपने दमखम पर ही किया।
उपरोक्त सभी प्रश्नों पर सभी नेताओं के विचार सुनने के बाद डॉक्टर जी ने अपने सारगर्भित मंथन को सबके सामने रख दिया। उल्लेखनीय है कि सभी तरह के संगठनों, राजनीतिक दलों, धार्मिक संस्थाओं, समितियों, क्रांतिकारी गुटों तथा अखाड़ों इत्यादि में सक्रिय भागीदारी करने तथा उनकी कार्यपद्धति और उद्देश्य को समझने/परखने के बाद ही डॉक्टर जी का यह मंथन था। इस मंथन को संक्षेप में इस तरह सबके सामने रखा गया कि संगठित, शक्ति सम्पन्न और पुनरुत्थानशील हिन्दू समाज ही देश की रक्षा की गारंटी हो सकता है। अतीत में जब भी भारत का राष्ट्रीय समाज अर्थात हिन्दू समाज शक्तिहीन एवं असंगठित हुआ तो हमारा भारत पराजित हो गया, परन्तु जब भी हिन्दू समाज ने एकजुट होकर विदेशी हमलावरों का सामना किया, तब-जब विदेशी एवं विधर्मी शक्तियां न केवल पराजित ही हुंई बल्कि हमने उन्हें भारत की मुख्य और मूल सांस्कृतिक धारा में आत्मसात भी कर लिया। डॉक्टर हेडगेवार के अनुसार यदि यही विघटनकारी चरित्र और मानसिकता बनी रही और हम एकजुट होकर एक राष्ट्रपुरुष के रूप में खड़े न हुए तो हमारी स्वतंत्रता को परतंत्रता में बदलने में देर नहीं लगेगी। इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे देशव्यापि स्वतंत्रता संग्राम को राष्ट्रीय चेतना का आधार प्रदान करना अति आवश्यक है।
डॉक्टर हेडगेवार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे सेनापति थे जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए जूझ रहे सभी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक संगठनों और क्रांतिकारी दलों को निकट से देखा, समझा और परखा था। डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने महात्मा गांधी, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महामना मदनमोहन मालवीय, भाई परमानन्द, डॉ. मुंजे, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकार, डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी और सरदार भगत सिंह आदि नेताओं के साथ संपर्क साधा हुआ था। डॉक्टर हेडगेवार ने कांग्रेस के भीतर सक्रिय रहकर यह स्पष्ट देखा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा चलाया जा रहा स्वतंत्रता आंदोलन किसी हद तक अंग्रेज शासकों की हिन्दुत्व विरोधी योजना के अनुसार चल रहा है। डॉक्टर हेडगेवार ने यह भी देखा कि एक विशेष समुदाय की तुष्टीकरण के फलस्वरूप अलगाववाद बढ़ रहा है तथा देश में विभाजन का माहौल बनता जा रहा है?
डॉक्टर हेडगेवार मुस्लिम विरोधी नहीं थे, बल्कि अनेक देशभक्त मुसलमान उनके मित्र थे। डॉक्टर हेडगेवार तो मुस्लिम समाज के भीतर पनप रहे कट्टरवादी हिन्दुत्व विरोध को सबके सामने लाना चाहते थे। डॉक्टर जी का स्पष्ट कहना था कि विदेशी हमलावरों ने जब भारत में लूट-खसोट, तलवार के जोर पर अपनी सत्ता स्थापित की तो उन्होंने बलात् खून-खराबा करते हुए भारत के राष्ट्रीय समाज हिन्दू को मुसलमान बनाना शुरु कर दिया। अधिकांश हिन्दुओं ने आक्रमणकारियों का डटकर सामना किया, अपनी कुर्बानियां दीं परन्तु धर्म नहीं छोड़ा। परन्तु जो हिन्दू इन दुर्दान्त आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सके, उन्होंने अपना धर्म छोड़कर इस्लाम कबूल किया और हमलावरों में शामिल हो गए। हिन्दू पूर्वजों की ही संतान इन नये मुस्लिम भाइयों ने हमलावर शासकों का साथ दिया और अपने ही हिन्दू पूर्वजों के बनाए हुए मठ-मंदिर तोड़े अर्थात अपनी ही सनातन राष्ट्रीय संस्कृति को बर्बाद करने में जुट गए। वास्तव में यह एक तत्कालिक धार्मिक परतंत्रता थी जिसे इन लोगों ने स्थाई परतंत्रता के रूप में कबूल कर लिया। अपनी सनातन संस्कृति को ठुकराकर विदेशी हमलावरों की आक्रामक तहजीब को स्वीकार कर लिया। यह भी कहा जा सकता है कि भारत माता के ये पुत्र अपनी मां की गोद छोड़ पराई मां की गोद में जा बैठे। डॉक्टर हेडगेवार के अनुसार वर्तमान मुस्लिम समाज में अपनी पूजापद्धति बदली है। पूजा पद्धति बदल जाने से सनातन संस्कृति नहीं बदलती और न ही पूर्वजों को बदला जा सकता है। हिन्दू और मुसलमानों के पूर्वज एक हैं, संस्कृति एक है, सनातन उज्जवल इतिहास एक है इसलिए राष्ट्रीयता भी एक है।
स्वतंत्रता संग्राम के अज्ञात सेनापति डॉक्टर हेडगेवार ने अपने गहरे मंथन में से यह निश्कर्ष निकालकर सबके सामने रखा कि ‘‘हमारे समाज और देश का पतन मुसलमानों या अंग्रेजों के कारण नहीं हुआ, अपितु राष्ट्रीय भावना के शिथिल हो जाने पर व्यक्ति (व्यक्तिगत) और समष्टि (राष्ट्रगत) के वास्तविक संबंध बिगड़ गए। इस प्रकार की असंगठित अवस्था के कारण ही एक समय दिग्विजय का डंका दसों दिशाओं में बजाने वाला भारतवर्ष सैंकड़ों वर्षों से विदेशियों की पश्विक सत्ता के नीचे पददलित है’’। डॉक्टर हेडगेवार के इसी गहरे चिंतन/मंथन का परिणाम है ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’’।