भारत के गौरव का प्रतीक है राम मंदिर

12
VSK TN
    
 
     
आधुनिक भारत के कई राष्ट्र निर्माताओं ने ‘भारत की सामूहिक अंतश्चेतना’ को अपनी वाणी और आचरण से अभिव्यक्त किया है. इस‘सामूहिक अंतश्चेतना’ की इच्छा, आकांक्षा और संकल्प है अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाकर भारत के गौरव-प्रतीक को प्रतिष्ठित करना. 
जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि उसकी प्राथमिकताएं भिन्न हैं और अयोध्या में राम मंदिर के मामले की तेजी से सुनवाई करने का उसका कोई इरादा नहीं, वैसे ही यह मुद्दा जनता के बीच चर्चा का विषय बन गया. अयोध्या में राम मंदिर की तरह, सोमनाथ मंदिर पर भी एक मुस्लिम आक्रांता ने कई बार हमला कर उसे नष्ट किया था. यद्यपि राम मंदिर की जमीन के स्वामित्व का विवाद और सोमनाथ मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया भिन्न है, तो भी 1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और डॉ. कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के बीच सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर हुई बहस पर गौर करना आज समीचीन होगा. 
डॉ. मुंशी की पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम’ में दर्ज इस अविस्मरणीय बहस के चुनिंदा अंश यहां प्रस्तुत हैं (जो लोग पूरी बहस पढ़ना चाहते हैं, वे इस पुस्तक के पृष्ठ 559 से 566 तक पढ़ सकते हैं) 
क. मा. मुंशी लिखते हैं- ‘‘…दिसंबर 1922 में मैं उस भग्न मंदिर की तीर्थ यात्रा पर निकला. वहां पहुंचकर मैंने मंदिर को भयंकर दुरावस्था में देखा-अपवित्र, जला हुआ और ध्वस्त, पर फिर भी वह दृढ़ खड़ा था, जैसे हमारे साथ की गई कृतघ्नता और अपमान को न भूलने का संदेश देता हुआ. उस दिन सुबह जब मैंने पवित्र सभामंडप की ओर कदम बढ़ाए तो मंदिर के खंभों के भग्नावशेषों और बिखरे पत्थरों को देखकर मेरे अंदर तिरस्कार की ऐसी अग्निशिखा प्रज्ज्वलित हुई कि बता नहीं सकता.’’ हमारे राष्ट्रीय नेता दो अलग-अलग विचारों में बंटे थे. सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण उस समय भारत के गृह मंत्री सरदार पटेल द्वारा शुरू किया गया था, जिसे केन्द्र में तत्कालीन कैबिनेट मंत्री क. मा. मुंशी ने संपन्न किया था और भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उसका उद्घाटन किया था. 
क. मा. मुंशी आगे लिखते हैं – ‘‘नवंबर 1947 के मध्य में सरदार प्रभासपाटन के दौरे पर थे, जहां उन्होंने मंदिर में दर्शन किए. एक सार्वजनिक सभा में सरदार ने घोषणा की कि ‘नए साल के इस शुभ अवसर पर हमने फैसला किया है कि सोमनाथ का पुनर्निर्माण करना चाहिए. यह एक पवित्र कार्य है, जिसमें सभी को भाग लेना चाहिए.’ इसकी चर्चा तत्कालीन केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में हुई. 
‘‘…कैबिनेट की बैठक के अंत में जवाहरलाल ने मुझे बुलाकर कहा, ‘मुझे आपका सोमनाथ के पुनरुद्धार के लिए किया जा रहा प्रयास अच्छा नहीं लग रहा. यह हिन्दू पुनरुत्थानवाद है.’ मैंने जवाब दिया, मैं घर जा कर जो कुछ भी घटित हुआ है, उसके बारे में आपको जानकारी दूंगा.’’ 
लेकिन सवाल यह है कि आखिर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे ‘हिन्दू पुनरुत्थानवाद’ कहकर विरोध क्यों किया? जबकि क. मा. मुंशी ने इसे ‘भारत की सामूहिक अंतश्चेतना’ का नाम देते हुए इस प्रयास पर आम लोगों में खुशी की लहर का संकेत दिया था. एक ही मुद्दे पर दो विरोधी दृष्टिकोण क्यों बन जाते हैं? मूलत: यह भारत के दो अलग-अलग विचार हैं. पं. नेहरू भारत विरोधी नहीं थे, लेकिन भारत के संबंध में उनका नजरिया यूरोपीय सोच पर केन्द्रित था जो भारतीयता से अलग था. वहीं सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, क.मा. मुंशी और अन्य लोगों के भारत संबंधी विचार भारतीयता से निकले थे, जिनमें भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परंपरा का सार निहित था. महात्मा गांधी ने भी इसे स्वीकृति दी थी, शर्त केवल यह थी कि मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए धनराशि जनता के सहयोग से इकट्ठी की जाए. 
क.मा. मुंशी आगे लिखते हैं -‘‘24 अप्रैल 1951 को मैंने उन्हें (श्री नेहरू) एक पत्र लिखा था, जिसे मैं आगे अक्षरश: पुन: प्रस्तुत कर रहा हूं – ‘…सोमनाथ के संबंध में आपने कैबिनेट में स्पष्ट रूप से मेरा नाम लिया. मुझे खुशी है कि आपने ऐसा किया, क्योंकि मैं अपने किसी भी विचार या कार्य को छिपाना नहीं चाहता, खासकर आपसे, जिन्होंने बीते महीनों में मुझ पर इतना भरोसा किया है. …मैंने सोमनाथ को धर्म और संस्कृति के एक केंद्र, एक विश्वविद्यालय और एक कृषिक्षेत्र के तौर पर विकसित करने का बीड़ा उठाया है तो उसके पीछे सीधा-सादा कारण है कि मुझे यह कार्य सौंपा गया है. ऐसे किसी कार्य में सहायता प्रदान करते समय मेरा वकील होना या एक आम नागरिक या मंत्री होना सिर्फ एक संयोग मात्र है. 
आप अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे ऐतिहासिक उपन्यासों ने गुजरात के प्राचीन इतिहास से आधुनिक भारत का परिचय कराया है और मेरे उपन्यास ‘जय सोमनाथ’ की देश भर में चर्चा है. मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि भारत की ‘सामूहिक अंतश्चेतना’ किसी अन्य कार्य की तुलना में सोमनाथ के पुनर्निर्माण को भारत सरकार के समर्थन का सुनकर ज्यादा खुश है. कल आपने ‘हिन्दू पुनरुत्थान’ के संदर्भ में बात की. मैं आपके विचारों से अवगत हूं. मैंने हमेशा उनका सम्मान किया है. मुझे उम्मीद है कि आप मेरे विचारों के साथ भी न्याय करेंगे. मैंने अपने साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के माध्यम से हिन्दू धर्म के कुछ पहलुओं की आलोचना करते हुए उन्हें नया रूप देने या बदलने का विनम्र निवेदन किया है, इस विश्वास के साथ कि यह छोटा सा कदम ही आधुनिक वातावरण में भारत को एक उन्नत और सशक्त राष्ट्र बना सकता है. सोमनाथ में प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ एक और घटना जुड़ी हुई थी. जब प्राण-प्रतिष्ठा का समय आया, तो मैंने राजेंद्र प्रसाद (भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति) से संपर्क किया और उनसे समारोह का उद्घाटन करने का निवेदन किया. लेकिन मैंने उनसे यह भी कहा कि अगर वह मेरा निमंत्रण स्वीकार करते हैं तो उन्हें अवश्य आना होगा.’’ प्रधानमंत्री के साथ मेरा पत्राचार उनसे छिपा नहीं था. उन्होंने वादा किया कि प्रधानमंत्री का चाहे जो दृष्टिकोण हो, वह आएंगे और प्राण-प्रतिष्ठा भी करेंगे और कहा, मैं एक मस्जिद या चर्च के साथ भी ऐसा ही करता, अगर मुझे वहां निमंत्रित किया जाता.’’ 
मेरी आशंका सही साबित हुई. जैसे ही यह घोषणा की गई कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद मंदिर का उद्घाटन करने आ रहे हैं, जवाहरलाल ने उनके सोमनाथ जाने का जोरदार विरोध किया. लेकिन राजेंद्र प्रसाद जी ने अपना वादा पूरा किया. सोमनाथ में दिए उनके भाषण को सभी अखबारों में प्रकाशित किया गया था, लेकिन उसे सरकारी विभागों के दस्तावेजों में दर्ज नहीं किया गया.’’ 
कैसी विडंबना थी कि भारत में उदारवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में स्थापित नेहरूजी ने बहुत ही अनुदार और छोटी मानसिकता का परिचय दिया! उनके आदेश पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति के भाषण को सरकारी विभागों के दस्तावेजों से हटा दिया गया! नेहरूजी की यह अनुदार वृत्ति अभारतीय चरित्र का परिचय कराती है. 
भारत में 60 साल से एक ही दल के शासन के कारण इस नेहरूवादी अनुदार धारणा को ही सरकार द्वारा संरक्षण, पोषण और समर्थन मिलने के कारण बौद्धिक जगत, शिक्षा संस्थानों और मीडिया में भारत की यही अभारतीय अवधारणा प्रतिष्ठित करने का प्रयास हुआ है. इसलिए अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के विरोध में उभरने वाली आवाजें मीडिया और बौद्धिक जगत में ज्यादा तेज दिखाई देती हैं. लेकिन ऐसे करोड़ों हिन्दू (और मुस्लिम भी) हैं जो भारत की भारतीय अवधारणा को अंत:करण से मानते हैं जो भारत की एकात्म और समग्र आध्यात्मिक परंपरा के साथ गहराई से जुड़ी है व ‘भारत की सामूहिक अंतश्चेतना’ के अनुरूप है, जिसे सरदार पटेल, क.मा. मुंशी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, महात्मा गांधी, डॉ. राधाकृष्णन, पंडित मदनमोहन मालवीय और आधुनिक स्वतंत्र भारत के कई दिग्गज राष्ट्र निर्माताओं ने अपनी वाणी और आचरण से अभिव्यक्त किया है. इस ‘भारत की सामूहिक अंतश्चेतना’ की इच्छा, आकांक्षा और संकल्प अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाकर भारत के अपमान को निरस्त कर भारत के गौरव प्रतीक को प्रतिष्ठित करना है. 
डॉ. मनमोहन वैद्य 
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

Bhimayanam - Ambedkar's first biography in Samskrit

Thu Dec 6 , 2018
VSK TN      Tweet     Battling a visual handicap, an 84-year-old Vedic scholar in Pune has composed “Bhimayanam” , the first ever biography of the architect of Indian constitution and icon of the underprivileged Dr. B. R. Ambedkar in Sanskrit verse.  The exceptional feat of Prabhakar Joshi, who lost his sight completely while […]