– प्रशांत पोळ
मिथिला.
आर्यावर्त के उत्तर – पूर्व दिशा में स्थित एक वैभव संपन्न जनपद, जिसके राजधानी का नाम भी मिथिला है. यह जनपद, लोक कल्याणकारी राज्य का अनुपम उदाहरण है. इस राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं, शक्ति और बुद्धि का अपूर्व समन्वय जिन मे है, ऐसे राजा जनक. ये मूलतः क्षत्रिय है. राजा हश्वरोमा के सुपुत्र है. इनका मूल नाम शिरीध्वज है. उनके छोटे भाई, कुशध्वज नाम से जाने जाते हैं.
शिरीध्वज का लोगों में प्रचलित नाम है, जनक. अत्यंत विद्वान. महर्षि अष्टावक्र के शिष्य. क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मण्य में पारंगत. अनेक ब्राह्मणों को दीक्षा भी दी है.
निमी वंश के इन दो राजाओं, शिरीध्वज (जनक) और कुशध्वज, के परिवार में कुछ ऐसा संयोग है, कि दोनों को दो-दो पुत्रियां हैं. राजा जनक को, खेत जोतते हुए, सोने के हल के अग्र का स्पर्श होकर एक संदूक मिली थी, जिसमें थी एक तेजस्वी बालिका. जनक ने इसका संगोपन करने का निश्चय किया. यही है, राजा जनक की जेष्ठ पुत्री – सीता. अत्यंत बुद्धिमान, तेजस्वी, सुंदर और ममतामयी. सभी अस्त्र – शस्त्रों में पारंगत.
राजा जनक के परिवार में एक वंशपरंपरागत धनुष है, जिसे प्रत्यक्ष भगवान शंकर ने धारण कर के वत्रासुर का वध किया था. यह धनुष विशाल है. भारी भरकम है. राजा जनक ने निर्णय लिया है कि जो युवक इस धनुष को धारण कर, इसकी प्रत्यंचा चढ़ाएगा, उसे वह अपनी तेजस्वी कन्या सीता, पत्नी के रूप में देंगे.
मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र, राजा जनक के इस संकल्प को जानते हैं. श्रीराम को मिथिला लेकर जाने का उनका यही उद्देश्य है.
सिद्धाश्रम छोड़ते हुए अनेक ऋषिगण, विप्र समूह, सिद्धाश्रम के आसपास का वनवासी समुदाय, विश्वामित्र और श्रीराम – लक्ष्मण के साथ हो लिए. हजारों लोग और लगभग सौ गाड़ियां… कुछ अंतर काटने के पश्चात, महर्षि विश्वामित्र ने, चुनींदे ऋषिगण छोड़कर सभी को वापस लौटा दिया.
प्रवास करते हुए यह सब मिथिला पहुंचे. मिथिला नगरी के बाहर, एक विरान पड़े आश्रम के पास जब विश्वामित्र ने कुछ समय रुकने के लिए कहा, तो श्रीराम का कौतूहल जागृत हुआ. उन्होंने उस आश्रम के बारे में विश्वामित्र से पूछा. मुनिश्रेष्ठ ने बताया कि ‘यह गौतम ऋषि का आश्रम था और यहां पर उनकी पत्नी अहिल्या को उन्होंने शाप दिया था. किंतु यह भी कहा था कि जब श्रीराम यहां आएंगे तो वह पुनः अपने मूल रूप में प्रकट हो सकती है.’
श्रीराम के उस आश्रम में प्रवेश करते ही, अनेक वर्षों से कठोर तपस्या में रत, अहिल्या देदीप्यमान रूप में सामने आई. उनका स्वरूप दिव्य था. प्रज्वलित अग्निशिखा जैसा दिख रहा था. श्रीराम के दर्शन से उनके श्राप का अंत हो गया.
मध्येंऽभसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव।
सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह ॥१५॥
त्रयाणामपि लोकानां यावद्रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता ॥१६॥
(बालकांड / उनचासवां सर्ग)
अहिल्या उद्धार के बाद महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम – लक्ष्मण के साथ मिथिलापुरी में प्रवेश किया.
दूसरे दिन अपनी प्रातः सभा में राजा जनक ने, अत्यंत आदरपूर्वक, अर्घ्य चढ़ाकर, मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र का स्वागत किया. उनके साथ आए हुए दो तेजस्वी युवकों के बारे में विश्वामित्र से पूछा. विश्वामित्र ने राजा जनक को उन दो राजकुमारों के बारे में बताया. श्रीराम और लक्ष्मण ने किस प्रकार से उनके अनुष्ठान में आए सभी विघ्नों को दूर किया तथा सिद्धाश्रम का परिसर कैसे आतंक से मुक्त किया, यह भी विस्तार से बताया.
अवधपुरी नरेश, राजा दशरथ के पुत्र, ईश्वाकु कुल के वंशज, श्रीराम – लक्ष्मण अपनी सभा में आए हैं, यह सुनकर और देखकर राजा जनक अत्यधिक प्रसन्न हुए. जब महर्षि विश्वामित्र ने, निमी वंश की धरोहर, वह परंपरागत शिव धनुष, दर्शन के लिए लाने को कहा, तो राजा जनक ने हर्षपूर्वक उसे स्वीकार किया.
आठ पहियों वाली बड़ी सी संदूक में रखा वह शिव धनुष, अनेक सैनिकों द्वारा खींचकर वहां लाया गया.
राजा जनक ने कहा, “मुनिवर, यही वह श्रेष्ठ धनुष है जिसका जनकवंशी नरेशों ने सदा ही पूजन किया है. इस धनुष को उठाने वाले नरश्रेष्ठ युवक के साथ, मैं अपनी जेष्ठ पुत्री सीता का विवाह करना चाहता हूं.”
धनुष्य सामने आने पर महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को संकेत किया. श्रीराम अपने आसन से उठे. संदूक के पास गए, और अत्यंत सहजता से उस शिव धनुष को उठा लिया.
मिथिला नगरी की वह सर्वोच्च सभा, बड़े ही विस्मय से यह दृश्य देख रही थी.
श्रीराम ने पुनश्च, सहजता के साथ, उस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर, आकर्ण खींची. ऐसा करते ही साथ, वज्रपात के समान बड़ी भारी आवाज हुई और वह धनुष्य बीच से टूट गया.
आरोपयित्वा धर्मात्मा पूरयामास तद्धनु:।
तद्बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशा: ॥१७॥
(बालकांड / सरसठवां सर्ग)
यह देखकर राजा जनक समवेत उस राजसभा के सभी मंत्री, ऋषिगण, विप्रवर आनंदित हुए. राजा जनक ने सीता का विवाह श्रीराम से करने का निश्चय किया.
इस मंगल प्रसंग की सूचना देने, अयोध्या के लिए दूत दौड़ पड़े. संदेश पाकर महाराज दशरथ अपने मंत्रियों समवेत मिथिला नगरी के लिए निकले.
मिथिला में ईश्वाकु कुल पुरुष पहुंचने पर यह तय हुआ कि दो अत्यंत पराक्रमी, सद्वर्तनी और सच्चरित्र कुल (परिवार), आपसी संबंधों में लिप्त हो रहे हैं, अतः इन संबंधों को अधिक सशक्त बनाया जाए.
तदनुसार राजा जनक, अर्थात शिरीध्वज की कनिष्ठ कन्या उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ तय हुआ. साथ ही, राजा जनक के कनिष्ठ भ्राता, कुशध्वज की पुत्री मांडवी का विवाह भरत तथा श्रृतकीर्ति का विवाह, शत्रुघ्न के साथ निश्चित हुआ.
कुछ ही दिनों में विजय मुहूर्त पर, पूर्वा फाल्गुनी तथा उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र पर, चारों राजकुमारों का विवाह, निमी वंश की चारों राजकन्याओं के साथ, अत्यंत हर्षपूर्ण तथा मंगलमय वातावरण में संपन्न हुआ. अच्छा संबंध जुड़ने पर दोनों कुल, अत्यधिक प्रसन्न थे. साथ ही मिथिलापुरी के जनसामान्य भी हर्षोल्लास से भरपूर थे. आनंदित थे.
यथावकाश, विवाह के विधि संपन्न होने पर, दान – धर्म – दक्षिणा देने के पश्चात, ईश्वाकु कुल के बाराती, नवपरिणीत राजकन्याओं के साथ, अयोध्या नगरी वापस आए.
बारात के आगमन पर अयोध्या नगरी ही नहीं, तो पूरा कोशल जनपद, तोरण – पताकाओं से पल्लवित था. प्रत्येक नगरवासी ने अपने घर के सामने पानी छींककर, रंगोली सजाई थी. वातावरण में एक अभूतपूर्व आनंद की लहर दौड़ रही थी.
अयोध्या पुरी में आने के और कुछ दिन विश्राम के पश्चात, भरत और शत्रुघ्न, अपने-अपने मातुल गृह (मां के घर) चले गए. राजा दशरथ, श्रीराम – लक्ष्मण के साथ राज काज की चर्चा करने लगे. श्रीराम – सीता का सांसारिक जीवन आनंद से व्यतीत होने लगा.
अपने चारों पुत्रों का विवाह होने के कारण, महाराज दशरथ के मन में अब निवृत्ति के विचार आने लगे. परंपरा के अनुसार राज्य व्यवहार जेष्ठ पुत्र को देना, यह विधि सम्मत है. और श्रीराम वैसे भी इसके योग्य है. अस्त्र – शस्त्रों में तो वह निपुण है ही, साथ ही वें सदा शांत चित्त रहकर, मीठे वचन बोलते हैं. अपने पराक्रम पर उन्हें किंचित मात्र भी अभिमान नहीं है. वे सत्य वचनी है. विद्वान है. सदा वृद्ध और विद्वानों का सम्मान करते हैं.
प्रजा का श्रीराम के प्रति और श्रीराम का प्रजा के प्रति बड़ा अनुराग है.
नचानृतकथो विद्वान् वृद्धानां प्रतिपूजकः।
अनुरक्तः प्रजाभिश्च प्रजाश्चाप्यनुरञ्जते ॥१४॥
(अयोध्या कांड / पहला सर्ग)
अतः ऐसे राजपुत्र को राज्याभिषेक कराकर, कोशल राज्य की व्यवस्था सोंपना ज्यादा उचित है. राजा दशरथ के मन में अब श्रीराम के राज्याभिषेक की अभिलाषा बारंबार जागृत होने लगी.
अथ राज्ञो बभूवैवं वृद्धस्य चिरजीविनः ।
प्रीतिरेषा कथं रामो राजा स्यान्मयि जीवति ॥३६॥
(अयोध्या कांड / पहला सर्ग)
किंतु यह सब प्रक्रिया से होना चाहिए. इस हेतु राजा दशरथ ने कोशल जनपद के भिन्न-भिन्न नगरों में निवास करने वाले प्रधान पुरुषों को बुलावा भेजा. कोशल के अंकित जो जनपद थे, उनके सामंत राजाओं को भी, अपने मंत्रियों द्वारा आमंत्रण भेजा.
कुछ दिनों के पश्चात, तय तिथि को, जब सभी आमंत्रित विद्वतजन, सभा में एकत्र हुए, तो राजा दशरथ ने अपने मन की अभिलाषा सबके सामने रखी. अधिक आयु होने के कारण, सारा राजकाज, जेष्ठ पुत्र श्रीराम को सौंपने की इच्छा प्रकट की. सभा में उपस्थित सभी ने इस निर्णय का सहर्ष अनुमोदन किया.
महाराजा दशरथ ने महर्षि वशिष्ठ और स्वामी वामदेव जी को श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी करने हेतु कहा. मंत्री सुमंत्र एक दिन श्रीराम को राज्यसभा में लेकर आए. वहां राजा दशरथ ने उन्हें लोक कल्याणकारी राज्य के प्रबंधन के बारे में बातें बताई.
श्रीराम को राज्याभिषेक होने वाला है, यह वार्ता वायु वेग से समूचे कोशल जनपद में फैली.
अयोध्यावासी इस समाचार से अत्यंत हर्षित है. सत्यवचनी, सच्चरित्र एवं पराक्रमी श्रीराम उनके नृपति होने जा रहे हैं, इसका सभी को आनंद है. अपने-अपने ढंग से, पौर जन, राज्याभिषेक उत्सव की तैयारी में लग गए हैं.
समूचा कोशल प्रांत अब राज्याभिषेक के दिवस की व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहा है..!
(क्रमशः)
– प्रशांत पोळ