DR.HEDGEWAR, RSS AND FREEDOM STRUGGLE-16 (Those 15 days)

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सर्वांग स्वतंत्रता/सर्वांगीण विकास’ की ओर संघ के बढ़ते कदम
नरेन्द्र सहगल
15 अगस्त 1947 को देश दो भागों में विभक्त हो गया। ‘इंडिया दैट इज भारत’ और ‘पाकिस्तान’। भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने बाद गांधी जी ने ‘कांग्रेस का काम पूरा हो गया अब इसे समाप्त कर के एक सेवादल के रूप में परिवर्तित कर देना चाहिए’ का सुझाव कांग्रेस के नेताओं के समक्ष रखा था। परन्तु सत्ता के मोह में फंस चुके कांग्रेस के नेताओं ने गांधी जी की एक न सुनी। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता न होकर ‘अखंड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता’ था अतः संघ ने अपना स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा।
महात्मा गांधी जी के सिद्धान्तों आदर्शों और कार्य संस्कृति की अवहेलना करके कांग्रेसी सत्ताधारियों ने पाकिस्तान के अस्तित्व को‘सैटल्ड फैक्ट’’ मानते हुए अंग्रेजों की भारत विरोधी कुटिल चाल पर संवैधानिक मोहर लगाकर जो महापाप किया, उसका नतीजा न केवल भारत ही भुगत रहा है अपितु सारी दुनिया पाकिस्तानी आतंकवाद का शिकार हो रही है। भारत विभाजन के बाद बचे हुए भारतवर्ष में ब्रिटिश सत्ताधारियों द्वारा बनाए गए 1935 के संविधान में आगे-पीछे जोड-तोड़ करके उसे भारत की जनता पर थोप दिया गया। भारतीयों को काले अंग्रेज बनाने के उद्देश्य से लार्ड मेकाले द्वारा अख्तियार की गई शिक्षा नीति को बनाए रखकर भारतीयों को भारतीयता से तोड़ने का क्रम जारी रहा। भारतवासियों की जरूरतों, परिस्थितियों तथा परंपराओं की ओर ध्यान न देकर अंग्रेजों की ही साम्राज्यवादी नीतियों का अंधानुकरण शुरु कर दिया। महात्मा गांधी जी ने अपनी ‘हिन्द स्वराज’पुस्तक में लिखा था ‘‘कुछ लोग मेरे हिन्दुस्तान को ‘अंग्रेज’ बनाना चाहते हैं परन्तु वे जान लें कि हमारा हिन्दुस्तान जब अंग्रेज बन जाएगा तो वह हिन्दुस्तान नहीं रहेगा, सच्चा इंग्लिस्तान बन जाएगा, यह मेरी कल्पना का स्वराज्य नहीं है’’।
गांधी जी के अनुसार ‘‘ब्रिटिश शासकों ने भारत को पाश्चात्य शिक्षा, प्रशासन, संविधान तथा आर्थिक मकड़जाल में फंसा दिया था। स्वराज्य प्राप्ति के बाद यदि देश को इस विदेशी मकड़जाल से न निकाला गया तो स्वाधीनता का कोई अर्थ नहीं बचता’’। महात्मा गांधी जी की चेतावनी की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। अतः इस सरकारी नासमझी और भारत की श्रेष्ठ सांस्कृतिक धरोहर से मुंह मोड़ लेने के भयानक दुष्परिणाम सबके सामने हैं। हमारा भारत जो स्वतंत्रता आंदोलनों के समय एकजुट था वह अब भाषा, क्षेत्र, जाति, मजहब के आधार पर विभाजित हो गया है। पूर्व काल में जो एकता का वातावरण निर्माण हुआ था वह विघटन में बदल गया। वोट की राजनीति का उदय हो गया, फलस्वरूप सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला होने लगा। अमीर और गरीब की खाई का आकार बढ़ने लगा। वोट बैंक अस्तित्व में आ गए। अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को चिरस्थायी बनाने के लिए भारत के गौरवशाली अतीत के इतिहास को बिगाड़ने का जो काम अंग्रेजों ने किया था आज वही इतिहास पढ़कर हम भी वही काम कर रहे हैं।
एक विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद खंडित भारत का जो हिस्सा हमारे पास रहा उसी को हम भारत समझ बैठे। हम भूल गए कि हमारा ‘भारतवर्ष’ वर्तमान भारतवर्ष से कही ज्यादा लम्बा चौड़ा था। 12 सदियों तक निरंतर विदेशी सत्ताओं को उखाड़ने के लिए भारतीयों ने जो संघर्ष किया, वह वर्तमान भारत के लिए नहीं था। यह ठीक है कि विशाल भारत का एक भूखंड स्वाधीन हो गया है परन्तु इससे अनेक गुणा ज्यादा भूभाग आज भी विदेशी सत्ताओं के आधीन ही है। हमारी अंग्रेजनुमा नीतियों के कारण आज भारतमाता के सनातन अखंड स्वरूप की कल्पना भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं हो रही। भारतवर्ष के वे भूभाग जो विदेशियों के कब्जे में हैं वे हमारे हैं, ऐसा विचार भी कहीं सुनाई नहीं देता। यह उन्हीं अंग्रेजी संस्कारों का परिणाम है जिन्हें हम आज तक घसीट रहे हैं। उल्लेखनीय है कि डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने इसी अखंड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता की प्राप्ति कि लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। इसी सर्वांग स्वतंत्रता के लिए संघ आज भी संघर्षरत है। संघ की ‘अखंड भारत की सर्वांग स्वतंत्रता’ की परिधि में भारत का भूगोल, संविधान, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक नीति ये सभी क्षेत्र आते हैं, जो विदेशी सत्ताओं और विदेशी संस्कारों के आधीन हैं।
विभाजन के पूर्व स्वाधीनता आंदोलन के प्रत्येक मोर्चे, सशस्त्र क्रांति, सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन इत्यादि में बढ़चढ़ कर भाग लेने वाले‘स्वयंसेवक सेनानियों’ ने राजनीतिक स्वाधीनता के बाद भी पूर्ण स्वतंत्रता अर्थात सर्वांगीण स्वतंत्रता के लिए अपने संग्राम को गतिशील बनाए रखा। जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, गोवा इत्यादि रियासतों में भारत के संविधान तथा राष्ट्रध्वज तिरंगे की रक्षा के लिए संघ के स्वयंसेवकों द्वारा दिए गए बलिदान भारत के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।1948-1962-1965-1971 में विदेशी आक्रमणों के समय भारतीय सेना की सहायता एवं अनेक प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था में योगदान करके संघ के स्वयंसेवकों ने अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाकर यह साबित कर दिया था कि वे डॉक्टर हेडगेवार के पदचिन्हों पर दृढ़ता से चलते रहेंगे।
अपने स्थापना काल से लेकर आज तक इन 93 वर्षों के निरंतर और अथक प्रयत्नों के फलस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राष्ट्र जागरण का एक मौन परन्तु सशक्त आंदोलन बन चुका है। प्रखर राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत डॉक्टर हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित संघ के स्वयंसेवक आज भारत के कोने-कोने में देशप्रेम, समाजसेवा और राष्ट्रीय चेतना की अलख जगा रहे हैं। आज संघ एक विशाल वट वृक्ष बनकर देश की समस्त दुखती रगों को शीतलता प्रदान कर रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले भारतीय समाज के प्रत्येक पंथ, जाति और वर्ग के अनुयायियों को एक विजयशालिनी शक्ति के रूप में खड़ा करने में संघ ने अदभुत सफलता प्राप्त की है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रव्यापी स्वरूप को समझने के लिए इसके चतुष्कोणीय कार्य को गहराई से समझना आवश्यक है। संघ का प्रथम स्वरूप है प्रत्यक्ष शाखा का कार्य। संघ की शाखा एक ऐसा शक्ति-पुंज है, जहां से राष्ट्रप्रेम की विद्युत तरंगें उठकर समाज के प्रत्येक क्षेत्र को जगमगा रही हैं। संघ कार्य का दूसरा स्वरूप है संघ द्वारा संचालित विविध क्षेत्र – ‘किसान, मजदूर, वनवासी, गिरीवासी, विद्यार्थी जगत, शिक्षा जगत, चिकित्सा जगत और सेवा’ से संबंधित अनेकों क्षेत्रों में संघ ने छोटे बड़े अनेकों संगठन खड़े किए हैं। यह सभी संगठन अपने-अपने क्षेत्र की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार राष्ट्रीय जागरण का कार्य कर रहे हैं। संघ कार्य का तीसरा स्वरूप है स्वयंसेवकों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर किए जा रहे राष्ट्रहित के कार्य। इस श्रेणी में विद्यालय, समाचार-पत्र, प्रकाशन, लेखक कार्य, औषधालय, मंदिरों की व्यवस्था, अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और सेवा प्रकल्प इत्यादि आते हैं। स्वयंसेवकों द्वारा चलाए जा रहे इन निजी प्रकल्पों के पीछे राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा विद्यमान रहती है। संघ कार्य अर्थात राष्ट्र-जागरण का चौथा स्वरूप बड़ा विस्तृत और महत्वपूर्ण है। इसमें हिन्दुत्व/राष्ट्र जागरण के वे सभी अभियान, आंदोलन, अध्यात्मिक संस्थान, सम्मेलन और धार्मिक संगठन आते हैं जो राष्ट्र के परमवैभव के लिए सक्रिय हैं। संघ का इन सभी संगठनों को पूरा सहयोग रहता है, यहां तक कि संघ के स्वयंसेवक बिना संघ का नाम लिए एक समाजसेवी और राष्ट्रभक्त नागरिक के नाते इन संगठनों में न केवल सक्रिय भूमिका निभाते हैं अपितु आवश्यकतानुसार संगठन तंत्र के सूत्रों को भी सम्भालते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी 93 वर्षों की सतत् तपस्या के बल पर भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अर्थात हिन्दुत्व का एक ऐसा धरातल तैयार कर दिया है, जिसमें राष्ट्र जागरण के अनेक अंकुर प्रस्फुटित होते जा रहे हैं। संघ ने भारत के सम्पूर्ण समाज जीवन को एक राष्ट्रीय दिशा प्रदान करने में अदभुत सफलता प्राप्त की है। एक ऐसी दिशा, जिसने राष्ट्र जीवन की उस दशा को बदल डाला है जिसके कारण भारत निरंतर 1200 वर्षों तक विदेशियों के आघातों का शिकार होता रहा। संघ द्वारा की गई साधना के फलस्वरूप बने वातावरण का ही परिणाम है कि आज अनेक राष्ट्रवादी संगठन हिन्दुत्व का एक ऐसा विशाल और ओजस्वी स्वरूप बनाने में सफल हो रहे हैं, जिसमें संसार को संगठित, शक्तिशाली और विजयी हिन्दू समाज के दर्शन हो रहे हैं। संघ ने राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त दुविधा और हीनभावना की स्थिति को बदल कर हिन्दुत्व/राष्ट्रीय दिशा देने का मौन आंदोलन छेड़ा हुआ है। हिन्दुत्व का आधार मजबूत होने से राष्ट्रवादी शक्तियों को बल मिला है, जबकि अराष्ट्रीय तत्व अलग-थलग पड़ गए हैं।
संघ का वैचारिक आधार ‘हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है’ यही भारत की ऐतिहासिक सच्चाई है। इसे साम्प्रदायिक, फासिस्ट, मुस्लिम विरोधी,जातिवादी, देश और समाज को तोड़ने वाली विचारधारा कहने वाले वही लोग हैं जिन्होंने स्वयं देश के टुकड़े किए हैं। जिनका जन्म ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सुरक्षा कवच के रूप में हुआ था और जो तुष्टीकरण की राजनीति अख्तियार करके भारत और भारतीयता अर्थात हिन्दुत्व के विनाश में जुटे रहे। ये वही लोग हैं, जो रूस एवं चीन से प्रेरणा ले कर भारत के धर्म, संस्कृति एवं राष्ट्र जीवन को ‘लाल’ करने में विफलतापूर्वक लगे हुए हैं। यह वही लोग हैं जो भारत के गौरवशाली इतिहास, उज्जवल संस्कृति और 1200 वर्षों तक लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक स्वरूप से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं।
सर्वविदित है कि वेद, उपनिषद, गीता, गंगा, भगवा एवं विजयादशमी-दीपावली जैसे त्यौहारों का किसी मजहब, क्षेत्र और जाति से कोई संबंध नहीं है। इस वांग्मय – पवित्र स्थानों, राष्ट्रीय त्यौहारों का अस्तित्व तो तब से है, जब मानवता का विभाजन हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई इत्यादि वर्गों में हुआ भी नहीं था। यह तो सभी भारतीयों की संयुक्त विरासत है। पूजा पद्धति बदलने से सांस्कृतिक विरासत कैसे बदल सकती है? पूर्वज कैसे बदले जा सकते हैं? इसी तरह हिन्दू शब्द सिंधु से बना है। जो समस्त भारतीयों की पहचान है। इस राष्ट्रीय पहचान से परहेज क्यों? हिन्दू एवं भारतीय एक ही अवधारणा है। हिन्दू राष्ट्रवाचक शब्द है। हम सभी भारतीय हिन्दू पूर्वजों की ही संतान हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवको के कृतिरूप दर्शन का मूल्यांकन करते समय संघ के गैर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। वैसे भी संघ द्वारा संचालित गतिविधियों का साक्षात दर्शन ऐसे लोग कदाचित नहीं कर सकते, जो दलगत राजनीति के तंग जंजाल में फंसे हुए हैं। अपने राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाना संघ का उद्देश्य है और यह गैर राजनीतिक सांस्कृतिक धरातल पर ही प्राप्त होगा।
संघ के स्वयंसेवक इसी साधना में जुटे हैं और अपने कदमों को अंगद के पांवों की तरह जमाते जा रहे हैं। आज तो संघ के स्वयंसेवक देश में हो रहे प्रत्येक प्रकार के ठोस व्यवस्था परिवर्तन के प्रतीक बन रहे हैं। भ्रष्टाचार, कालाधन, अलगाववाद और आतंकवाद इत्यादि राष्ट्रघातक खतरों से जूझ रहे समाज को शक्ति प्रदान करने के काम में अग्रसर हो रहे स्वयंसेवक अपने रास्ते में आने वाली राजनीतिक और गैर राजनीतिक बाधाओं को हटाकर सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहे हैं। संघ विरोधी शक्तियां परास्त हो रही हैं। पूजनीय महात्मा गांधी की‘राजराज्य’ की कल्पना साकार रूप ले रही है। भारत की सर्वांग स्वतंत्रता/सर्वांगीण विकास के अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए संघ के स्वयंसेवक समाज को साथ लेकर आगे बढ़ रहे हैं। बहुत कुछ हो गया है, परन्तु बहुत कुछ रह भी गया है। जो रह गया है उसे प्राप्त करने के लिए संघ संघर्षरत है। विजय अवश्यम्भावी है।
विजयादशमी 2 अक्टूबर 2025 को संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होंगे। संघ के स्वयंसेवक (चाहे वह किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हों) आगामी 7-8 वर्षों में पूरी ताकत के साथ अपने संगठन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए जुटेंगे और विश्व देखेगा कि हम अपने लक्ष्य के बहुत नजदीक पहुंच चुके हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक समस्त देशवासियों को साथ लेकर राष्ट्र जागरण के कार्य में सक्रिय रहेंगे। परम पूजनीय सरसंघचालक श्रीमान मोहन भागवत के शब्दों में ‘‘वर्तमान में ऐसा उज्जवल दौर शुरु हो चुका है जिसमें भारत पहले से भी अधिक शक्तिशाली विश्वगुरु के रूप में उभरेगा’’। —————–समाप्त।।

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