लोकनायक श्रीराम / 10

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– प्रशांत पोळ

लक्ष्मण के कहने पर हनुमान जब सुग्रीव को बुलाने जाते हैं, तो राजवैभव के भोग में मग्न सुग्रीव, कुछ दिन रुकने को कहते हैं. हनुमान उन्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं. किंतु राजसी ठाठ-बाट छोडकर जाने का सुग्रीव का मन नहीं है. वे टालते है.

हनुमान जब यह सारी बातें लक्ष्मण को बताते हैं, तो क्रोधित लक्ष्मण, अपने धनुष की टंकार करते हुए सुग्रीव के महल में प्रवेश करते हैं. सुग्रीव घबराकर, वाली पत्नी तारा के महल में जाकर छिप जाते हैं.

तेन चापस्वनेनाथ सुग्रीवः प्लवगाधिपः।
विज्ञायाऽगमनं त्रस्त सञ्चाचाल वरसनात् ॥२८॥
(किंष्किंधाकांड / तैतीसवां सर्ग)

आखिरकार तारा और अंगद के समझाने से लक्ष्मण का क्रोध शांत होता है. सुग्रीव को भी अपनी त्रुटि, अपना दोष ध्यान में आता है. रावण पर आक्रमण की तैयारी करने के बाबत, सभी का एकमत होता है.

किंतु फिर भी एक प्रश्न सामने आता है. श्रीराम कहते हैं, जानकी, रावण की लंका में ही है, या रावण ने उसे कहीं और छुपा के रखा है, यह ढूंढना आवश्यक है. त्रेतायुग में, युद्ध के सारे यम – नियमों का पालन होता है. इसलिए, ‘जब यह सुनिश्चित हो जाए की सीता को लंका में ही रखा है, तभी हम सब लंका पर आक्रमण करने चल देंगे’.

सीता की प्रत्यक्ष खोज करने के लिए, सुग्रीव, वानरों की टोलियां बनता है. एक टोली पूर्व में जाती है, तो एक टोली को दक्षिण में भेजा जाता है. चारों दिशाओं में यह टोलिया भेजी गई है. दक्षिण में जाने वाली टोली में स्वयं हनुमान है. श्रीराम, हनुमान को अपनी अंगूठी देते हैं, सीता को अपनी पहचान बताने के लिए. अंगद, जांबवंत जैसे धुरंधर वीर भी इसी टोली में है. खोजते – खोजते इनको एक महीने से ज्यादा समय हो जाता है, जो वानरराज सुग्रीव ने तय किया हैं. “हम निश्चित समय तक सीता को नहीं खोज सके, इसलिए हम सब मृत्युदंड के अधिकारी है” ऐसा अंगद को लगने लगता है. किंतु हनुमान उन सब के मन का अपराध बोध दूर करते हैं, तथा उन्हें आगे अन्वेषण प्रवाहित रखने को प्रेरित करते हैं.

आगे उन्हें गृध्रराज संपाति मिलते हैं. यह जटायु के भाई है. जटायु के मृत्यु का समाचार सुनकर वह शोकाकुल होते हैं. संपाति उन्हें, “सीता का हरण रावण ने ही किया है तथा वह लंका में ही है”, यह बताते हैं.

अब यह तो तय है कि सीता लंका में है. किंतु श्रीराम को इसकी सूचना देने से पहले, प्रत्यक्ष रूप से उन्हें देखना आवश्यक है. यह सब धुरंधर वीर, समुद्र के तट पर आकर बैठे हैं. समुद्र में दूर कहीं लंका है. इसलिए समुद्र लांघना आवश्यक है.

किंतु समुद्र कौन लांघेगा..? सबको लग रहा है, यह तो अपने बस की बात नहीं है.

इन सब में परिपक्व और प्रौढ ऐसे जांबुवंत, इस बात को लेकर अटल है कि, ‘इस समुद्र को कोई लांघ सकता है, तो वह हनुमान है’. वे हनुमान को समुद्र लांघने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. प्रेरित करते हैं. वे कहते हैं, “वानरश्रेष्ठ हनुमान, उठो और इस महासागर को लांघ जाओ, क्योंकि तुम्हारी गति सभी प्राणियों से बढ़कर है.”

और महाबली हनुमान, ‘जय श्रीराम’ कहते हुए, उस विशाल समुद्र को लांघकर लंका के तट पर पहुंचते हैं.

लंका में पहुंचकर हनुमान उस वैभव नगरी की शोभा देख रहे हैं. वह अपने बुद्धिचातुर्य से तथा चपलता से, लंका नगरी में प्रवेश करके, रावण के अंतःपुर तक पहुंच जाते हैं. वे सब जगह ढूंढते हैं. किंतु उन्हें माता सीता कहीं नहीं दिख रही है. वे निराश हो गए हैं. दुखी हो गए हैं. हनुमान, रावण का विशाल प्रासाद देखते हैं. पुष्पक विमान भी देखते हैं. महल के अंदर अनेक स्त्रियों को देखते हैं. गलती से मंदोदरी को ही सीता समझ लेते हैं. किंतु जब पता चलता है कि यह सीता नहीं है, तो ‘असली सीता’ की, पुनः एक बार खोज करने वे निकल पड़ते हैं.

संयोग से वह अशोक वाटिका पहुंच जाते हैं. वहां दानवी स्त्रियों के बीच, एक शोकाकुल स्त्री उन्हें दिखती है. उसने मालिन वस्त्र पहने हैं, और उपवास के कारण वह अत्यधिक दीन और दुर्बल दिख रही है.

विमलं प्रांशुभावत्वदुलिखान्तमिवम्बरम्।
ततो मलिनसंवितां राक्षसीभिस्मावृताम् ॥१८॥
उपवासकृष्णं दीनां निश्चयं पुनः पुनः आरंभ।
ददर्श शुक्लपक्षादौ चन्द्ररेखामिवमलाम् ॥१९॥
(सुंदरकांड / पंद्रहवा सर्ग)

हनुमान बड़ी चतुराई से सीता के पास जाकर, उन्हें अपना परिचय देते हैं, “मैं श्रीराम का दूत हूं”, यह गर्व से बताते हैं. सीता पहले तो हनुमान पर विश्वास नहीं करती. किंतु जब हनुमान, श्रीराम की दी हुई मुद्रिका (अंगूठी), उन्हें देते हैं, तो सीता को विश्वास हो जाता है. वह अत्यंत प्रसन्न हो उठती है. मानो जानकी को लगता हैं कि स्वयं उनके पतिदेव ही उनको मिल गए..!

गृहित्वा प्रेक्षामाण सा भर्तुः करविभूषणम्।
भर्तारामिव सम्प्राप्ति जानकी मुदिताऽभवत् ॥४॥
सुंदरकांड / छत्तीसवां सर्ग)

वे पूछती है, “श्रीराम मेरा उद्धार कब करेंगे..?” हनुमान उन्हें बताते हैं कि, “श्रीराम के मन में कुछ योजना है, आपको मुक्त करने की. अन्यथा, वे यदि आज्ञा देते, तो मैं ही आपको अपने कंधे पर बिठाकर, श्रीराम के पास ले चलता. किंतु उनकी आज्ञा, आपका क्षेम पूछने की है,”

इस प्रकार हनुमान, सीता को आश्वस्त करने के बाद, उस प्रमदावन (अर्थात अशोक वाटिका) का विध्वंस करना प्रारंभ कर देते हैं. ‘एक वानर अपनी वाटिका को विद्रूप बना रहा है’, यह देखकर, वहां के असुर, हनुमान को पड़कर रावण की सभा में लेकर जाते हैं. हनुमान भी यही चाहते हैं. उस सभा में, रावण के सारे मंत्रीगण, हनुमान को सामान्य वानर समझकर उसकी खूब खिल्ली उड़ाते हैं. रावण उसका वध करना चाहता है. किंतु विभीषण उसे बताते हैं कि, ‘राज्य शिष्टाचार के अनुसार, किसी भी दूत का वध यह सर्वथा अनुचित है’. रावण फिर अपने राक्षसों को कहता है, ‘हनुमान की पूछ में आग लगाकर इसे नगर में घुमाओ’.

हनुमान के मन की बात हो जाती है..!

अपनी पूछ को, और अधिक लंबी करते हुए हनुमान उस वैभव संपन्न स्वर्णमयी लंका में, प्रत्येक महल को, राजप्रासाद को, आग लगाते हुए घूमने लगते हैं. सारी लंका नगरी अग्नि के चपेट में आ जाती है. लंका में हाहाकार मच जाता है. ‘श्रीराम का दूत क्या कर सकता है’, यह लंका वासी खूब अच्छी तरह समझने लगे हैं.

लंका में अग्नि तांडव करके हनुमान, पुनश्च श्रीराम के पास वापस आते हैं और पूरा वृतांत उन्हें बताते हैं. रावण के शक्तिस्थान और उसकी कमजोरीयां, दोनों विस्तार से बताते हैं.

अब यह सिद्ध है कि जनक नंदिनी सीता, लंका में ही है.

अर्थात, अब रावण से युद्ध करना तय है. श्रीराम – लक्ष्मण ने प्रस्त्रवणगिरी पर्वत पर वानरों की एक छोटी सी सेना को प्रशिक्षित किया है. किंतु जिस प्रकार हनुमान ने रावण की शक्ति का वर्णन श्रीराम के सामने किया, उसे देखते हुए बड़ी संख्या में और भी सेना लगेगी.

सुग्रीव इसकी व्यवस्था करते हैं.

सुग्रीव के ससुर, रूमा के पिता, इस सेना में अपनी सेना के साथ शामिल होते हैं. उसी प्रकार तारा के महाबली पिता, हनुमान के पिता कपिश्रेष्ठ केसरी, नल – नील जैसे अभियंता, गवय, दरीमुख… ऐसे सभी महावीर योद्धा, श्रीराम की सेना के साथ अपनी सेना लेकर, संघर्ष के लिए तैयार हैं..!

यह जबरदस्त सेना सागर लेकर, श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण के साथ, समुद्र तट पर पहुंचते हैं..!

उधर लंका में…

विभीषण बार-बार अपने ज्येष्ठ भ्राता रावण के महल में जाकर, उसे सीता जैसी पराई स्त्री को छोड़ने की सलाह दे रहे हैं. किंतु कामातुर रावण, उसे बार-बार ठुकरा रहा है.

रावण ने अपनी राजसभा के सभासदों की एक बैठक बुलाई है. राम की सेना को कुचलने की योजना इस बैठक में बन रही है. रावण ने अपने आतंक के तंत्र में शामिल, जीवित बचे, सभी क्षत्रपों को इस बैठक हेतु बुलाया है.

रावण, बड़े ही स्पष्टता और निर्लज्जता से उस सभा में अपने क्षत्रपों को, असुरों को, बताता है कि ‘सुंदर स्त्री सीता के प्रति वह आसक्त है, भले ही वह किसी और की पत्नी हो. इसलिए मैं उसे छोड़ नहीं सकता…’ कुंभकर्ण पहले तो रावण को फटकारता है. बाद में राम के विरुद्ध युद्ध में वह रावण का साथ देने तैयार होता है.

अब रावण की सेना तैयार हो रही है श्रीराम की सेना से लड़ने..

इसी बीच, रावण की असुरी प्रवृत्तियों से तथा अनैतिक आचरण से तंग आकर, विभीषण, श्रीराम का साथ देने, श्रीराम के पास आकाश मार्ग से आते हैं. श्रीराम भी उनका यथोचित स्वागत करते हैं.

इधर समुद्र तट पर, श्रीराम की सेना के तल पर…

समुद्र से लंका तक मार्ग निकालने के प्रयास में, श्रीराम कुशा बिछाकर, समुद्र के सामने धरने पर बैठ जाते हैं. तीन दिन तक कुछ नहीं होने के पश्चात, वे लक्ष्मण से कहते हैं, शांति, क्षमा, सरलता और मधु भाषण, ये जो सत्पुरुषों के गुण हैं, इनका गुणहीनों के प्रति प्रयोग करने पर यही परिणाम होता है कि वह आपको दुर्बल समझने लगते हैं.

अवलेपस्समुद्रस्येनदर्शयत्यत्स्वयम्।
प्रशमश्चक्षमाचैवर्जनप्रियवादिता ॥१४॥
असमार्थ्यंफलनात्येतेनिर्गुणेषुस्तांगुणाः।
(युद्धकांड / इक्कीसवां सर्ग)

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

“हे सुमित्रानंदन, सामनीति से यह सागर मेरी बात नहीं मान रहा है. इसलिए, इस धनुष से विषधर सांपों जैसे बांण छोड़कर, मैं समुद्र को सुखा दूंगा, और फिर वहां से हम अपनी सेना को लंका तक लेकर जाएंगे.”

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

इसका परिणाम होना था. हुआ.

समुद्र पर सेतु बांधने की योजना सामने आई. समुद्र का पूरा सहयोग रहेगा, यह तय हुआ. और नल – नील, जांबवंत के मार्गदर्शन में पूरी सेना ने मिलकर, सागर पर सौ योजन का सेतु बना डाला..!

सामान्य लोगों को संगठित कर, उनमें देवत्व का संचार किया तो क्या हो सकता है, इसका यह सेतु एक अद्भुत उदाहरण बन गया..!

और अब प्रारंभ हुआ युद्ध.

घनघोर युद्ध. सारा विश्व जिसे निहार रहा है, देवता जिसके परिणाम की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं, ऐसा अभूतपूर्व युद्ध..!

किंतु यह युद्ध विषम है.

एक पक्ष मे, रावण का, कुबेर को भी नीचा दिखाने वाला वैभव है. उसका असुरी प्रवृत्ति से भरपूर सेना सागर है. विभिन्न प्रकार के भयंकर ऐसे अस्त्र है. शस्त्र है. युद्ध क्षेत्र भी उसी का है.

इसके विपरीत, बिना धन-बल के खड़ी श्रीराम की सेना है. यह पूर्णत: प्रशिक्षित सेना नहीं है. इनके पास अस्त्र-शस्त्र भी नहीं है. किंतु एक बड़ी बात है – एकजुटता. यह सामान्य लोगों की असामान्य संगठित शक्ति है, जिसने अल्पावधि में, उफान पर आए समुद्र में, विशाल सेतु का निर्माण कर दिया है..!

इन सब की प्रेरणा है – श्रीराम.

श्रीराम नाम के देवत्व का, वनों में रहने वाले सामान्य लोगों की संगठित शक्ति में संचार हुआ है. इन सबके लिए यह ईश्वरी कार्य हैं. इन सब का सामना है, पूरे आर्यावर्त को अपने आतंक के तंत्र में जकड़ कर रखने वाले रावण से. उसकी असुरी सेना से.

इन वनों में रहने वाले वानरों ने, महाप्रतापी लंकेश्वर, राजा रावण की पूरी सेना को लगभग समाप्त कर दिया. फिर क्या मेघनाथ, क्या इंद्रजीत और क्या कुंभकर्ण..! लक्ष्मण मूर्छित होने पर भी महाबली हनुमान का अदम्य साहस है कि, आवश्यक जड़ी बूटी को समय रहते हुए वह लेकर आए.

और अंत में…

श्रीराम – रावण के बीच में घनघोर युद्ध. श्रीराम ने अत्यंत कुपित होकर, बड़े क्रोध के साथ, धनुष को आकर्ण खींच कर, उस मर्मभेदी बाण को रावण पर चलाया.

शरांश्चसुमहावेगान्सूर्यरश्मिसमप्रभान् ।
तदुपोढुंमहद्युद्धमन्योन्यवधकाङ्क्षिणोः ॥१८॥
(युद्धकांड / एक सौ आठ वां सर्ग)

रावण के गिरते ही साथ, मानो पूरा आर्यावर्त प्रसन्नता से भावविभोर हो गया. आनंदित, प्रमुदित हो गया. वे सब, आतंक के उस काले, भयंकर तंत्र से मुक्त हो गए..!

श्रीराम ने अशोक वाटिका से सीता को मुक्त करके अपने साथ लिया. लंका के राजसिंहासन पर विभीषण को बिठाया और श्रीराम, लक्ष्मण, जानकी और हनुमान के साथ, भय मुक्त आर्यावर्त के अयोध्या नगरी की ओर चल पड़े..!
(समाप्त)
– प्रशांत पोळ

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